अध्याय ११ - विश्व रूप दर्शन योग
(अर्जुन द्वारा विश्वरूप के दर्शन के लिये प्रार्थना)
भगवद गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ज्ञानविज्ञानयोग के बारे में बताया है।भगवद गीता का ग्यारहवा अध्याय विश्वरूपदर्शनयोग है। इस अध्याय में, अर्जुन कृष्ण को अपने विश्व रूप को प्रकट करने का अनुरोध करते हैं जो की सारे विश्वों अथवा संपूर्ण अस्तित्व का स्त्रोत है।
भगवान कृष्ण के शरीर में पूरी सृष्टि को देखने में सक्षम होने के लिए अर्जुन को दिव्य दृष्टि दी जाती है।कृष्ण बताते हैं कि उन्होंने अपना "भयानक" रूप अर्जुन के अलावा किसी को नहीं दिखाया। वह उसे धीरे से कहता है, उसे डरने के लिए नहीं बल्कि शांत रहने के लिए और प्रकाशमान रहने के लिए कहता है।
01-04 विश्वरूप के दर्शन हेतु अर्जुन की प्रार्थना
05-08 भगवान द्वारा अपने विश्व रूप का वर्णन
09-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विश्वरूप का वर्णन
15-31 अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना
32-34 भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन और अर्जुन को युद्ध के लिए उत्साहित करना
35-46 भयभीत हुए अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति और चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिए प्रार्थना
47-50 भगवान द्वारा अपने विश्वरूप के दर्शन की महिमा का कथन तथा चतुर्भुज और सौम्य रूप का दिखाया जाना
51-55 बिना अनन्य भक्ति के चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता का और फलसहित अनन्य भक्ति का कथन।
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ (१)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - मुझ पर कृपा करने के लिए आपने जो परम-गोपनीय अध्यात्मिक विषयक ज्ञान दिया है, उस उपदेश से मेरा यह मोह दूर हो गया है। (१)
त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ (२)
भावार्थ : हे कमलनयन! मैंने आपसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय और आपकी अविनाशी महिमा का भी वर्णन विस्तार से सुना हैं। (२)
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ (३)
भावार्थ : हे परमेश्वर! इस प्रकार यह जैसा आप के द्वारा वर्णित आपका वास्तविक रूप है मैं वैसा ही देख रहा हूँ, किन्तु हे पुरुषोत्तम! मै आपके ऐश्वर्य-युक्त रूप को मैं प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। (३)
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ (४)
भावार्थ : हे प्रभु! यदि आप उचित मानते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने में समर्थ हूँ, तब हे योगेश्वर! आप कृपा करके मुझे अपने उस अविनाशी विश्वरूप में दर्शन दीजिये। (४)
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ (५)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगो वाली आकृतियों को भी देख। (५)
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ (६)
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तू मुझमें अदिति के बारह पुत्रों को, आठों वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को, उनचासों मरुतगणों को और इसके पहले कभी किसी के द्वारा न देखे हुए उन अनेकों आश्चर्यजनक रूपों को भी देख। (६)
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख। (७)
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ (८)
भावार्थ : किन्तु तू अपनी इन आँखो की दृष्टि से मेरे इस रूप को देखने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है, इसलिये मैं तुझे अलौकिक दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मेरी इस ईश्वरीय योग-शक्ति को देख। (८)
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ (९)
भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! इस प्रकार कहकर परम-शक्तिशाली योगी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्य-युक्त अलौकिक विश्वरूप दिखलाया। (९)
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ (१०)
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ (११)
भावार्थ : इस विश्वरूप में अनेकों मुँह, अनेकों आँखे, अनेकों आश्चर्यजनक दिव्य-आभूषणों से युक्त, अनेकों दिव्य-शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य-मालाऎँ, वस्त्र को धारण किये हुए, दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये हुए, सभी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण प्रकाश से युक्त, असीम और सभी दिशाओं में मुख किए हुए सर्वव्यापी परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। (१०-११)
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (१२)
भावार्थ : यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके। (१२)
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ (१३)
भावार्थ : पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से अलग-अलग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सभी देवताओं के भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक स्थान में स्थित देखा। (१३)
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ (१४)
भावार्थ : तब आश्चर्यचकित, हर्ष से रोमांचित हुए शरीर से अर्जुन ने भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला। (१४)
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ (१५)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे भगवान श्रीकृष्ण! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं को तथा अनेकों विशेष प्राणीयों को एक साथ देख रहा हूँ, और कमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा जी को, शिव जी को, समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ। (१५)
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ (१६)
भावार्थ : हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से असंख्य रूपों को देख रहा हूँ, हे विश्वरूप! न तो मैं आपका अन्त, न मध्य और न आदि को ही देख पा रहा हूँ। (१६)
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥ (१७)
भावार्थ : मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ, और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को कठिनता से देख पा रहा हूँ। (१७)
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ (१८)
भावार्थ : हे भगवन! आप ही जानने योग्य परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत के परम-आधार हैं, आप ही अविनाशी सनातन धर्म के पालक हैं और मेरी समझ से आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। (१८)
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ (१९)
भावार्थ : आप अनादि है, अनन्त है और मध्य-रहित हैं, आपकी महिमा अनन्त है, आपकी असंख्य भुजाएँ है, चन्द्र और सूर्य आपकी आँखें है, मैं आपके मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को तपते हुए देख रहा हूँ। (१९)
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ (२०)
भावार्थ : हे महापुरूष! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक के बीच केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आपके इस भयंकर आश्चर्यजनक रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। (२०)
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ (२१)
भावार्थ : सभी देवों के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं उनमें से कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं, और महर्षिगण और सिद्धों के समूह 'कल्याण हो' इस प्रकार कहकर उत्तम वैदिक स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं। (२१)
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥ (२२)
भावार्थ : शिव के सभी रूप, सभी आदित्यगण, सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त मरुतगण और पितरों का समूह, सभी गंधर्व, सभी यक्ष, समस्त राक्षस और सिद्धों के समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख रहे हैं। (२२)
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ (२३)
भावार्थ : हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। (२३)
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥ (२४)
भावार्थ : हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगो से युक्त मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मेरा मन भयभीत हो रहा है, मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। (२४)
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार दाँतों के कारण विकराल और प्रलयंकारी की अग्नि के समान आपके मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ और न ही सुख पा रहा हूँ, इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। (२५)
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ (२६)
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ॥ (२७)
भावार्थ : धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने समस्त सहायक वीर राजाओं के सहित तथा पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, सूत पुत्र कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धा भी आपके भयानक दाँतों वाले विकराल मुख में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं, और उनमें से कुछ तो दाँतों के दोनों शिरों के बीच में फ़ंसकर चूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं। (२६-२७)
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥ (२८)
भावार्थ : जिस प्रकार नदियों की अनेकों जल धारायें बड़े वेग से समुद्र की ओर दौड़तीं हुयी प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सभी मनुष्य लोक के वीर योद्धा भी आपके आग उगलते हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२८)
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥ (२९)
भावार्थ : जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश के लिये जलती हुयी अग्नि में बड़ी तेजी से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यह सभी लोग भी अपने विनाश के लिए बहुत तेजी से आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२९)
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ (३०)
भावार्थ : हे विश्वव्यापी भगवान! आप उन समस्त लोगों को जलते हुए सभी मुखों द्वारा निगलते हुए सभी ओर से चाट रहे हैं, और आपके भयंकर तेज प्रकाश की किरणें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित करके झुलसा रहीं है। (३०)
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ (३१)
भावार्थ : हे सभी देवताओं में श्रेष्ठ! कृपा करके आप मुझे बतलाइए कि आप इतने भयानक रूप वाले कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आप मुझ पर प्रसन्न हों, आप ही निश्चित रूप से आदि भगवान हैं, मैं आपको विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपके स्वभाव को नहीं जानता हूँ। (३१)
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ (३२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैं इस सम्पूर्ण संसार का नष्ट करने वाला महाकाल हूँ, इस समय इन समस्त प्राणीयों का नाश करने के लिए लगा हुआ हूँ, यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष के योद्धा तेरे युद्ध न करने पर भी भविष्य में नही रहेंगे। (३२)
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ (३३)
भावार्थ : हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के लिये युद्ध करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा मारे जा चुके हैं, तू तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। (३३)
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥ (३४)
भावार्थ : द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और भी अन्य अनेक मेरे द्वारा मारे हुए इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय से विचलित हुए युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित रूप से शत्रुओं को जीतेगा। (३४)
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ (३५)
भावार्थ : संजय ने कहा - भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला। (३५)
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ॥ (३६)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित ही है कि आपके नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आपके प्रति अनुरक्त हो रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आपके भय के कारण इधर-उधर भाग रहे हैं और सभी सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार कर रहे हैं। (३६)
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ (३७)
भावार्थ : हे महात्मा! यह सभी श्रेष्ठजन आपको नमस्कार क्यों न करें क्योंकि आप ही ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाले हैं, हे अनन्त! हे देवादिदेव! हे जगत के आश्रय! आप अविनाशी, समस्त कारणों के मूल कारण, और आप ही परमतत्व है। (३७)
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ (३८)
भावार्थ : आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही जानने वाले हैं, आप ही परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार अनन्त रूपों में व्याप्त हैं। (३८)
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ (३९)
भावार्थ : आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणीयों के पिता ब्रह्मा भी है और आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार! आपको हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! फिर भी आपको बार-बार नमस्कार! करता हूँ। (३९)
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ (४०)
भावार्थ : हे असीम शक्तिमान! मैं आपको आगे से, पीछे से और सभी ओर से ही नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप ही सब कुछ है, आप अनन्त पराक्रम के स्वामी है, आप ही से समस्त संसार व्याप्त हैं, अत: आप ही सब कुछ हैं। (४०)
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥ (४१)
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ (४२)
भावार्थ : आपको अपना मित्र मानकर मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण!, हे यादव! हे सखा! इस प्रकार आपकी महिमा को जाने बिना मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ कहा है, हे अच्युत! यही नही हँसी-मजाक में आराम करते हुए, सोते हुए, वैठते हुए या भोजन करते हुए, कभी अकेले में या कभी मित्रों के सामने मैंने आपका जो अनादर किया हैं उन सभी अपराधों के लिये मैं क्षमा माँगता हूँ। (४१,४२)
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ (४३)
भावार्थ : आप इस चल और अचल जगत के पिता और आप ही इस जगत में पूज्यनीय आध्यात्मिक गुरु हैं, हे अचिन्त्य शक्ति वाले प्रभु! तीनों लोकों में अन्य न तो कोई आपके समान हो सकता हैं और न ही कोई आपसे बढकर हो सकता है। (४३)
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥ (४४)
भावार्थ : अत: मैं समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में गिरकर साष्टाँग प्रणाम करके आपकी कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन कर लेता हैं उसी प्रकार आप मेरे अपराधों को सहन करने की कृपा करें। (४४)
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (४५)
भावार्थ : पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए हे देवताओं के स्वामी! हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम रूप को मुझे दिखलाइये। (४५)
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ (४६)
भावार्थ : हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं आपके मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, कृपा करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों। (४६)
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ (४७)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४७)
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ (४८)
भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४८)
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ (४९)
भावार्थ : हे मेरे परम-भक्त! तू मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज रूप को देख। (४९)
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥ (५०)
भावार्थ : संजय ने कहा - वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद अपना विष्णु स्वरूप चतुर्भुज रूप को प्रकट किया और फिर दो भुजाओं वाले मनुष्य स्वरूप को प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया। (५०)
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ (५१)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! आपके इस अत्यन्त सुन्दर मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। (५१)
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥ (५२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है, उसे देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं। (५२)
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥ (५३)
भावार्थ : मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है। (५३)
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (५४)
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है। (५४)
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ (५५)
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है। (५५)
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