कर्म के सिद्धांत | Karma ke Siddhant in Hindi

आज हम भगवद गीता में बताये गए  कर्म के  सिद्धांत के बारे में जानेंगे 

कर्म का सिद्धांत अत्यंत कठोर है। जहां अच्छे कर्म व्यक्ति के जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं, वहीं बुरे कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं,वैसे गीता में बुरे कर्म का प्रयाश्चित करने का तरीका भी बताया गया है। धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य को किए हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म को प्रधानता देते हुए यहां तक स्पष्ट किया है कि व्यक्ति की यात्रा जहां से छूटती है, अगले जन्म में वह वहीं से प्रारंभ होती है। कर्म के इसी सिद्धांत को सरलता से समझने के लिए, आइये जानते है कर्मो के प्रकार और कर्म फलो के बारे में –

गीता के अनुसार कर्म तीन, के प्रकार होते हैं- क्रियमाण, सञ्चित और प्रारब्ध | अभी वर्तमान में जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ कर्म कहलाते हैं।

गीता में तीन प्रकार के कर्म के सिद्धांत के बारे में बताया गया है। 

  1. सञ्चित कर्म
  2. प्रारब्ध कर्म
  3. क्रियमाण कर्म

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकमंकृत् ॥ (गीता ४ । १८)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ (गीता ३ | २७)

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (गीता १३ । २९ )

जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्य जन्म में ही बनते हैं, पशु-पक्षी आदि योनियों में नहीं, क्योंकि वे योनियां केवल कर्मफल-भोग के लिये ही मिलती है।

आइये अब कर्मो के सिद्धांत को अब डिटेल्स में पड़ते हैं। 

सञ्चित कर्म

जो कर्मा वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘सञ्चित’ कर्म कहलाते हैं।

प्रारब्ध कर्म

सञ्चित में, से जो कर्म फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और सुखदायी- दुःखदायी परिस्थिति के रूप में परिणत होने के लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते है ।

क्रियमाण कर्म

क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं – शुभ और अशुभ | जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ-कर्म कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, प्रासक्ति आदि को लेकर जो शास्त्रनिषिद्ध कर्म किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं। शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।

क्रियमाण कर्म के फल इस प्रकार है। 

अंश के दो भेद हैं- दृष्ट और अदृष्ट | इनमें से दृष्टके भी दो भेद होते हैं तात्कालिक और कालान्तरिक | जैसे स्वादिष्ट भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है – यह इष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना- यह दृष्टका फल है 

अब आइये कालान्तरिक फल  के बारे में जानते है।

जिसका अधिक मिर्च खाने का स्वभाव है, वह जब अधिक मिर्च वाले पदार्थ खाता है तो उसको प्रसन्नता होती है, सुख होता है और मिर्च की तीक्ष्णता के कारण मुह में, जीभ में जलन होती है, आँखों से और नाक से पानी निकलता है, सिर से पसीना निकलता है यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है। और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन और रोग, दुःख आदि का होना – यह दृष्टका ‘कालान्तरिक’ फल है ।

इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं- लौकिक और पारलौकिक । जीते-जी ही फल मिल जाय- इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र जप आदि शुभ कर्मों को विधि विधान से किया जाय।  

और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, घन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग. 

निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है, और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय, इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा विश्वासपूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभकर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना यह अरष्टका ‘पारलौकिक’ फल है।

 ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मो का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना, यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है।   

घोर पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी, कीट-पतङ्ग आदि बनना यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है ।

पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल ,के विषय में एक बात और समझने की है कि, जिन पाप कर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा।

 परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात्।  उन पाप कर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा – इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता। क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परन्तु भगवान को इसका पूरा पता है ।

अतः उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इस वास्ते मनुष्य को ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिये कि मेरा पाप तो कम था, पर दण्ड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया ! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान का विधान है कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी-न-किसी पाप का ही फल होता है । इस विवेचना को सरल शब्दों में समझने के लिए एक कहानी की और चलते है ।

तो यह थे कर्म फल का ज्ञान का छोटा सा इनफार्मेशन यही समाप्त होता है। 

जिसको भगवद गीता के चौथे और पन्द्रहवे अध्याय में संछेप में बताया गया है। 

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