जितिया व्रत कथा | Jitiya Vrat Katha
इस पोस्ट में हम आपको जितिया व्रत कथा के बारे विस्तार से बताएँगे। जितिया व्रत हर साल आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी से लेकर नवमी(समापन) तक किया जाता है। यह व्रत हर साल महिलाएं अपनी संतान की सुख,लम्बी आयु ,और समृद्धि होने की कामना के लिए रखती हैं।कथा के अनुसार मान्यता है कि जितिया व्रत करने से संतान की लंबी उम्र होती है और उनके जीवन में किसी भी प्रकार की कष्ट या विपदा नहीं आती है। जितिया व्रत के दिन , व्रत रखकर संध्याकाल में अच्छी तरह से स्न्नान किया जाता है और पूजा की सारी वस्तुएं लेकर पूजा की जाती है। साथ ही व्रत कथा जरूर पढ़ा जाता है। व्रत कथा के बिना जितिया पूजा अधूरी मानी जाती है। इस पोस्ट के अंत में आपको जीवित पुत्रिका व्रत कथा(Jivitputrika vrat katha) का PDF लिंक मिल जाएगा।
सप्तमी को खरना रखा जाता है और खरना करके अष्टमी को व्रत रखा जाता है। उसके बाद फिर नवमी तिथि को व्रत का पारण किया जाता है। जितिया व्रत की कथा में मुख्यतः तीन कथाओं का वर्णन मिलता है।
जितिया पर्व संतान की सुख-समृद्धि के लिए रखा जाने वाला व्रत है। इस व्रत में पूरे दिन निर्जला यानी कि (बिना जल ग्रहण किए ) व्रत रखा जाता है। यह पर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और नेपाल के मिथिला और थरुहट में आश्विन माह में कृष्ण-पक्ष के सातवें से नौवें चंद्र दिवस तक तीन दिनों तक मनाया जाता है। इस बार यह व्रत 17 और 18 सितंबर को है तो आइए जानते हैं जितिया व्रत की पूजा विधि और कथा विस्तार से।
1.जितिया व्रत कथा | Jitiya Vrat Katha
जीमूतवाहन के नाम पर ही
जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पड़ा है।
पुत्र की रक्षा के लिए किया जाने वाला व्रत जीवित्पुत्रिका या जितिया का
विशेष महत्व है। इस दिन माताएंअपनी संतान की रक्षा और कुशलता के लिए निर्जला व्रत
करती है। जीमूतवाहन के नाम पर हीजीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पड़ा है। आइए जानते
हैं कि जीमूतवाहन कौन हैं और उनकी कथा क्या है। जितिया का व्रत अश्विन महीने के
कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है।
यह इस दिन माताएं अपने
बच्चों की लंबी उम्र, सेहत और सुखमयी
जीवन के लिए व्रत रखती हैं। इस व्रत की शुरुआत सप्तमी से नहाय-खाय के साथ हो जाती
है और नवमी को पारण के साथ इसका समापन होता है। तीज की तरह जितिया व्रत भी बिना
आहार और निर्जला किया जाता है। छठ पर्व की तरह जितिया व्रत पर भी नहाय-खाय की
परंपरा होती है। यह पर्व तीन दिन तक मनाया जाता है। सप्तमी तिथि को नहाय-खाय के
बाद अष्टमी तिथि को महिलाएं बच्चों की समृद्धि और उन्नत के लिए निर्जला व्रत रखती
हैं। इसके बाद नवमी तिथि यानी अगले दिन व्रत का पारण किया जाता है यानी व्रत खोला
जाता है।
धार्मिक कथाओं के मुताबिक
बताया जाता है कि एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर एक चील रहती थी। उसे पेड़ के नीचे एक
सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थीं, थीं दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जितिया व्रत करने का
संकल्प लिया और भगवान श्री जीऊतवाहन की पूजा और व्रत करने का प्रण ले लिया।
लेकिन जिस दिन दोनों को
व्रत रखना था, उसी दिन शहर के
एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसके दाह संस्कार में सियारिन को भूख लगने
लगी थी। मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम
रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया।
अगले जन्म में दोनों
सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम
भास्कर था। चील, बड़ी बहन बनी और
सियारन, छोटी बहन के रूप में जन्मीं।
मींचील का नाम शीलवती रखा गया, शीलवती की शादी
बुद्धिसेन के साथ हुई। जबकि सियारिन का नाम कपुरावती रखा गया और उसकी शादी उस नगर
के राजा मलायकेतु से हुई।
भगवान जीमूतवाहन के
आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर
जाते थे। कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए और वे सभी राजा के दरबार
में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी,
उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए।
उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास
भिजवा दिया। यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सिर बनाए।
जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं। कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई, जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंनेहों नेउसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाहसंस्कार कर दिया।
2.जीतिया कथा (चील और सियारिन की कथा ) | Jivitputrika Vrat Katha in Hindi
एक
नगर में किसी वीरान जगह पर पीपल का पेड़ था। इस पेड़ पर एक चील और इसी के नीचे एक
सियारिन भी रहती थी। एक बार कुछ महिलाओं को देखकर दोनों ने जिऊतिया व्रत किया। जिस
दिन व्रत था उसी दिन नगर में एक मृत्यु हो गई। उसका शव उसी निर्जन स्थान पर लाया
गया।
सियारिन ये देखकर व्रत की
बात भूल गई और मांस खा लिया। चील ने पूरे मन से व्रत किया और पारण किया। व्रत के
प्रभाव में दोनों का ही अगला जन्म कन्याओं अहिरावती और कपूरावती के रूप में हुआ।
जहां चील स्त्री के रूप में राज्य की रानी बनी और छोटी बहन सियारिन कपूरावती उसी
राजा के छोटे भाई की पत्नी बनी। चील ने सात बच्चों को जन्म दिया, लेकिन कपूरावती के सारे बच्चे जन्म लेते ही मर
जाते थे। इस बात से जल-भुन कर एक दिन कपूरावती ने सातों बच्चों कि सिर कटवा दिए और
घड़ों में बंद कर बहन के पास भिजवा दिया।
कहा जाता हैं एक बार एक जंगल में चील और लोमड़ी (सियार) घूम रहे थे, तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवम कथा सुनी। उस समय चील ने इस व्रत को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा, वही लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था। चील ने कथा में बताये नियमानुसार निर्जला उपवास किया जबकि सियार ने मांस खा लिया। चील के संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुँची लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बच पाये। इसलिए पर्व में चील और सियार का बार-बार ज़िक्र आता है और पहले और तीसरे दिन खाना पहले इन्हें ही खिलाया जाता है। हमारे यहाँ इन्ही चील और सियार को चिल्हो-सियारो कहा जाता है।
3.जीवित्पुत्रिका पूजा विधि | Jivitputrika Vrat Katha Procedure
- सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करने के बाद सूर्य भगवन को जल अर्पण करें।
- जितिया व्रत कि कथा सुनने के पहले मिट्टी और गाय के गोबर से चील व सियारिन की मूर्ति बनाएं।
- इसके बाद जल से पवित्र करें फिर धूप, दीपक आदि से आरती करें और भोग लगाएं।
- कुशा से बनी जीमूतवाहन की प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित करें।
- इस व्रत के पारण के बाद महिलाएं जितिया का लाल रंग का धागा गले में पहनती हैं।
- व्रती की हुई महिलाएं जितिया का लॉकेट भी धारण करती हैं।
- पूजा के सभी ननियमो का पालन करें और व्रत की कथा अवश्य सुनें।
- पूजा के दौरान ,नेनुआ या तरोई का पत्ता के साथ सरसों का तेल और खल चढ़ाया जाता है।
- अगले सुबह नवमी तिथि को व्रत का पारण के बाद दान करना चाहिए ।
4.जितिया की आरती जीवित्पुत्रिका व्रत कथा | Jitiya Vrat Katha Aarti
5. जितिया व्रत के लाभ | Jivitputrika Vrat Benefits
- जीवित्पुत्रिका व्रत के मुख्यतः माताएं संतान की लंबी आयु के लिए रखती हैं।
- इस व्रत को सही प्रक्रिया के करने से संतान के ऊपर से संकट टल जाता है।
- यह व्रत संतान को सभी संकटो से मुक्त करता है।
- माताएं ,अपने संतान के शारीरिक और मानसिक सुख के लिए प्रार्थना करती हैं।
- संतान के नौकरी में उन्नति के लिए भी यह व्रत फलदयाक है।
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